सैरेन्ध्री (खंडकाव्य)

Tuesday, September 05, 2006

सैरेन्ध्री.......

फिर मुँह की खाकर गिर पड़ा दुगुने विगलित वेष से।

धर्मराज भी कंक बने थे वहाँ विराजे,
लगा वज्र-सा उन्हें मौलि घन से गाजे।
सँभले फिर भी किसी तरह वे ‘हरे, हरे,’ कह !
हुए स्तब्ध- सभी सभासद ‘अरे, अरे,’ कह !
करके न किन्तु दृक्पात तक कीचक उठा, चला गया,
मानो विराट ने चित्त में यही कहा कि ‘भला गया’।

सम्बोधन कर सभा-मध्य तब मत्स्यराज को,
बोली कृष्णा कुपित, सुना कर सब समाज को।
मधुर कण्ठ से क्रोध-पूर्ण कहती कटु वाणी,
अद्भुत छबि को प्राप्त हुई तब वह कल्याणी।
ध्वनि यद्यपि थी आवेग-मय, पर वह कर्कश थी नहीं,
मानो उसने बातें सभी वीणा में होकर कहीं।

“भय पाती है जहाँ राजगृह में ही नारी,
होता अत्याचार यथा उस पर है भारी।
सब प्रकार विपरीत जहाँ की रीति निहारी,
अधिकारी ही जहाँ आप हैं अत्याचारी।
लज्जा रहनी अति कठिन है कुल-वधुओं की भी जहां,
हे मत्स्यराज, किस भाँति तुम हुए प्रजा-रंजक वहाँ।

छोड़ धर्म की रीति, तोड़ मर्यादा सारी,
भरी सभा में लात मुझे कीचक ने मारी,
उसका यह अन्याय देख कर भी भय-दायी,
न्यायासन पर रहे मन तुम बन कर न्यायी !
हे वयोवृद्ध नरनाथ क्या, यही तुम्हारा धर्म है ?
क्या यही तुम्हारे राज्य की राजनीति का मर्म है ?

तुमसे यदि सामर्थ्य नहीं है अब शासन का,
तो क्यों करते नहीं त्याग तुम राजासन का ?
करने में यदि दमन दुर्जनों का डरते हो,
तो छूकर क्यों राज-दण्ड दूषित करते हो !
तुमसे निज पद का स्वाँग भी, भली भाँति चलता नहीं।
आधिकाररहित इस छत्र का भार तुम्हें खलता नहीं ?

प्राणसखी जो पञ्च पाण्डवों की पाञ्चाली,
दासी भी मैं उसी द्रौपदी की हूँ आली।
हाय ! आज दुर्दैव-विवश फिरती हूँ मारी,
वचनबद्ध हो रहे वीरवर वे व्रत-धारी।
करता प्रहार उन पर न यों दुर्विध यदि कर्कश कशा
तो क्यों होती मेरी यहाँ इस प्रकार यह दुर्दशा ?

अहो ! दयामय धर्मराज, तुम आज कहाँ हो ?
पाण्डु-वंश के कल्पवृक्ष नरराज, कहाँ हो ?
बिना तुम्हारे आज यहाँ अनुचरी तुम्हारी,
होकर यों असहाय भोगती है दुख भारी।
तुम सर्वगुणों के शरण यदि विद्यमान होते यहाँ,
तो इस दासी पर देव, क्यों पड़ती यह विपदा महा ?

तुम-से प्रभु की कृपा-पात्र होकर भी दासी,
मैं अनाथिनी-सदृश यहाँ जाती हूँ त्रासी !
जब आजातरिपु, बात याद मुझको यह आती,
छाती फटती हाय ! दुःख दूना मैं पाती।
कर दी है जिसने लोप-सी नामग-भुजंगों की कथा,
हा ! रहते उस गाण्डीव के हो मुझको ऐसी व्यथा !

जिस प्रकार है मुझे यहाँ कीचक ने घेरा,
होता यदि वृत्तान्त विदित तुमको यह मेरा।
तो क्या दुर्जन, दुष्ट, दुराचारी यह कामी,
जीवित रहता कभी तुम्हारे कर से खामी !
तुम इस अधर्म अन्याय को देख नहीं सकते कभी,
हे वीर ! तुम्हारी नीति की उपमा देते हैं सभी।

क्रूर दैव ने दूर कर दिया तुमसे जिसको,
संकट मुझको छोड़ और पड़ता यह किसको ?
यह सब है दुरदुष्ट-योग, इसका क्या कहना ?
मेरा अपने लिए नहीं कुछ अधिक उलाहना।
पर जो मेरे अपमान से तुम सबका अपमान है।
हे कृतलक्षण, मुझको यही चिन्ता महान है !”

सुन कर निर्भय वचन याज्ञसेनी के ऐसे,
वैसी ही रह गई सभा, चित्रित हो जैसे।
कही हुई सावेग गिरा उसकी विशुद्ध वर,
एक साथ ही गूँज गई उस समय वहाँ पर।
तब ज्यों ज्यों करके शीघ्र ही अपने मन को रोक के,
यों धर्मराज कहने लगे उसकी ओर विलोक के, -

“हे सैरन्ध्री, व्यग्र न हो तुम, धीरज धारो,
नरपति के प्रति वचन न यों निष्ठुर उच्चारो
न्यायमिलेगा तुम्हें, शीघ्र महलों में जाओ,
नृप हैं अश्रुवृत्त, न को दोष लगाओ।
शर-शक्ति पाण्डवों की किसे ज्ञात नहीं संसार में ?
पर चलता है किसको कहो, वश विधि के व्यापार में ?”

धर्मराज का मर्म समझ कर नत मुखवाली,
अन्तःपुर को चली गई तत्क्षण पांचाली।
किन्तु न तो वह गई किसी के पास वहाँ पर,
और न उसके पास आ सका कोई डर कर।
वह रही अकेली भीगती दीर्घ-दृगों के मेह में,
जब हुई नैश निस्तब्धता गई भीम के गेह में।

बन्द किए भी नेत्र वृकोदर जाग रहे थे,
पड़े-पड़े निःश्वास बड़े वे त्याग रहे थे।
राह उसी की देख रहे थे धीरज खोकर,
वे भी सारा हाल सुन चुके थे हत होकर।
हो गई अधीरा और भी उन्हें देख कर द्रौपदी,
हिम-राशि पिघल रवि-देज से बढ़ा ले चले ज्यों नदी।

“जागो, जागो अहो ! भूल सुध, सोने वाले !
ओ अपना सर्वस्त्र आप ही खोने वाले !”
उठ बैठे झट भीम उन्होंने लोचन खोले,
और – “देवि, मैं जाग रहा हूँ” वे यों बोले।
“जब तक तुम हो सर्वस्व भी अपना अपने संग है,
सो नहीं रहा था मैं प्रिये, निन्द्रा तो चिर भंग है।”

“मैं तो ऐसा नहीं समझती” कृष्णा बोली –
“करो सजगता की न नाथ, तुम और ठिठोली !
आज आत्म-सम्मान तुम्हारा जाग रहा क्या ?
अब भी तन्द्रा शौर्य्य-वीर्य वह त्याग रहा क्या !
आघात हुए इतने तदपि नहीं हुआ प्रतिघात कुछ,
आती है मेरी समझ में नहीं तुम्हारी बात कुछ !

भोगा सब निज धर्म-भीरुता पर मर जीकर,
कोसूँ फिर क्यों उसे न मैं पानी पी पी कर !
गिना चहूँ मैं कहो सहा है मैंने जो जो,
सिद्ध करूँ सब सत्य,कहा है मैंने जो जो
सहने को अत्याचार को बाध्य करे, वह धर्म है,
तो इस निर्मम संसार में और कौन दुष्कर्म है ?

भोजन में विष दिया जिन्होंने और जलाया,
राज-पाट सब लूट-लाट वन-पथ दिखलाया।
माथा ऊँचा किए रहें वे, छिपे फिरें हम,
राज्य करें वे, दास्य-गर्त में हाय ! गिरें हम।
फिर भी कहते हो तुम की मैं जगता हूँ, सोता नहीं,
अच्छा होता है नाथ, तुम सोते ही कहीं !

कहते हो सर्वस्व मुझे तुम मैं जब तक हूँ,
रहने दो यह वचन-वंचना, मैं कब तक हूँ,
नंगी की जा चुकी प्रथम ही राज-भवन में,
हरी जा चुकी हाय ! जयद्रथ से फिर वन में !
अब कामी कीचक की यहाँ गृध्र-दृष्टि मुझ पर पड़ी,
सहती हूँ मृत्यु बिना अहो ये विडम्बनाएं बड़ी !

जिसके पति हों पाँच पाँच ऐसे बलशाली,
सुरपुर में भी करे कीर्ति जिनकी उजयाली।
काली हो अरि-कान्ति देख कर जिनकी लाली,
सहूँ लाञ्छना प्रिया उन्हीं की मैं पांचाली !”
कहती कहती यों द्रोपदी रह न सकी मानो खड़ी,
मूर्छित होकर वह भीम के चरण-शरण में गिर पड़ी।

“धिक है हमको हाय ! सहो तुम ऐसी ज्वाला,”
कहते कहते उसे भीम ने शीघ्र सँभाला।
दीखी वह यों अतुल अंक-आश्रय पाक पति का –
विटप-काण्ड पर पड़ी ग्रीष्म-दग्धा ज्यों लतिका।
“जागो, जागो प्राणप्रिये, बतलाओ मैं क्या करूँ ?
यदि न करूँ तो संसार के सभी पाप सिर पर धरूँ।”

जल-सिंचन कर, और व्यंजन कर, हाथ फेर कर,
किया भीम ने सजग उसे कुछ भी न देर कर।
फिर आश्वासन दिया और विश्वास दिलाया,
वचनामृत से सींच सींच हत हृदय जिलाया।
प्रण किया उन्होंने अन्त में कीचक के संहार का,
फिर दोनों ने निश्चय किया साधन सहज प्रकार का।

पर दिन कृष्णा सहज भाव से दीख पड़ी यों,
घटना कोई वहाँ घटी ही न हो बड़ी ज्यों।
कीचक से भी हुई सहज ही देखा देखी,
मानो ऐसी सन्धि ठीक ही उसने लेखी।
“सैरन्ध्री” कीचक ने कहा – “अब तो तेरा भ्रम गया ?
विरुद्ध देखा न सब निष्फल तेरा श्रम गया ?

अब भी मेरा कहामान हठ छोड़ हठीली,
प्रकृति भली है सरल और तनु-यष्टि गठीली !”
सुन कर उसकी बात द्रौपदी कुछ मुसकाई,
मन में घृणा, परन्तु बदन पर लज्जा लाई।
कीचक ने समझा अरुणिमा आई है अनुराग की,
मुँह पर मल दी प्रकृति ने मानों रोली फाग की !

बोली वह – “हे वीर, मनुज का मन चंचल है,
किन्तु सत्य है स्वल्प, अधिक कौशल या छल है।
प्रत्यय रखती नहीं इसीसे मेरी मति भी,
भूल गए हैं मुझे अचानक मेरे पति भी !
अब तुम्हीं कहो, विश्वास मैं रक्खूं किसकी बात पर ?
अन्धेरे में एकाकिनी रोती हूँ बस रात भर।

रहता कोई नहीं बात तक करने वाला,
तिस पर शयन-स्थान मिला है मुझे निराला।
कहाँ उत्तरा की सुदीर्घ तौर्यत्रिक शाला,
उसका वह विश्रांन्ति-वास दक्षिण दिशि वाला।
कोई क्या जाने काटती कैसे उसमें रात मैं ?
पागल सी रहती हूँ पड़ी सहकर शोकाघात मैं।”

कीचक बोला – “अहा ! आज मैं आ जाऊँगा,
प्रत्यय देकर तुझे प्रेयसी पा जाऊँगा।”
“अन्धेरे में कष्ट न होगा ?” कहकर कृष्णा,
मन्दहास में छिपा ले गई विषम वितृष्णा !
“रौरव में भी तेरे लिए जा सकता हूँ हर्ष से।”
यह कह कर कीचक भी गया मानो विजयोत्कर्ष से।

यथा समय फिर यथा स्थान वह उन्मद आया,
सौरन्ध्री की जगह भीम को उसने पाया।
पर वह समझा यही कि बस यह वही पड़ी है !
बड़े भाग्य से मिली आज यह नई घड़ी है !
झट लिपट गया वह भीम से चपल चित्त के चाव में,
आ जाय वन्य पशु आप खिंच ज्यों अजगर के दाँव में।

पल में घल पिस उठा भीम के आलिंगन से,
दाँत पीस कर लगे दबाने वे घन घन से !
चिल्लाता क्या शब्द-सन्धि थी किधर गले की ?
आ जा सकी न साँस उधर से इधर गले की !
मुख, नयन, श्रवण, नासादी से शोणितोत्स निर्गत हुआ,
बस हाड़ों की चड़ मड़ हुई यों वह उद्धत हत हुआ !

लेता है यम प्राण, बोलता है कब शव से ?
पटक पिण्ड-सा उसे भीम बोले नव रव से –
“याईसेनी, आ, देख यही था वह उत्पाती ?
किन्तु चूर हो गई आह ! मेरी भी छाती !”
हँस बोले फिर वे – “बस प्रिये, छोड़ मान की टेकदे,
आकर अपनी हृदयाग्नि से अब तू मुझको सेक दे !”


देख भीम का भीम कर्म भीमाकृति भारी,
स्वयं द्रौपदी सहम गई भय-वश बेचारी।
कीचक के लिए भी खेस उसको हो आया,
कहाँ जाय वह सदय हृदय ममता-माया ?
हो चाहे जैसा ही प्रबल यह अति निश्चित नीति है,
मारा जाता है शीघ्र ही करता जो अनरीति है।



क्रमशः .........

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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजनसम्मान

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