सैरेन्ध्री (खंडकाव्य)

Tuesday, September 05, 2006

सैरेन्ध्री

वेश मलिन था किन्तु रूप आवेश भरा था।
था उद्देश्य अवश्य किन्तु आदेश भरा था।
मुख शान्त दिनान्त समान ही, निष्प्रभ किन्तु पवित्र था।
नभ के अस्फुट नक्षत्र-सा, हार्दिक भाव विचित्र था।

मुझ पर आदर दिखारही थी, पर निर्भय थी,
अनुनय उसमें न था, सहज ही वह सविनय थी।
नेत्र बड़े थे, किन्तु दृष्टि भी सूक्ष्म बड़ी ही,
सबके मन में पैठ बैठ वह गई खड़ी ही !
वह हास्य बीच में ही रुका, सन्नाटा-सा छा गया,
मेरे गौरव में भी स्वयं कुछ घाटा-सा आ गया।

मुद्रा वह गम्भीर देख सब रुकी, जकी-सी
और दृष्टियाँ एकसाथ सबझुकी, थकी-सी।
काले काले बाल कन्धरा ढके खुले थे
गुँथे हुए-से व्याल मुक्ति के लिए तुले थे !
दृक्पात न करती थी तनिक सौध विभव की ओर वह,
क्या कहूँ सौम्य या घोर थी कोमल थी कि कठोर वह !

सहसा मैं उठ खड़ी हुई उठ खड़ी हुई सब,
पर नीरव थी, भ्रान्त भाव में पडडी हुई सब।
कया ससम्भ्रम प्रश्न अन्त में मैंने ऐसे –
भद्रे, तुम हो कौन ! और आई हो कैसे ?
उसके उत्तर के भाव का लक्ष्य न जाने था कहाँ –
मैं ? हाँ मैं अबला हूँ तथा आश्रयार्थ आई यहाँ।
इस पर निकला यहीवचन तब मेरे मुख से –
अपना ही घर समझ यहाँ ठहरो तुम सुख से।
आश्रयार्थिनी नहीं असल में अतिथि बनी वह,
नहीं सेविका, किन्तु हुई मेरी स्वजनी वह।
अनुचरियों को साहस नहीं समझें उसे समान वे,
रह सकती नहीं किए बिना उसका आदर मान वे।

बहुधा अन्यमनस्क दिखाई पड़ती है वह,
मानो नीरव आप आप से लड़ती है वह !
करती करती काम अचानक रुक जाती है,
करके ग्रीवा-भंग झोंक से झुक जाती है !
बस भर सँभाल कर चित्त को श्रम से वह थकती नहीं,
पर भूल करे तो भर्त्सना मैं भी कर सकती नहीं।

कार्य-कुशलता देख-देख उसकी विस्मय से,
इच्छा होती है कि बड़ाई करे हृदय से।
किन्तु दीर्घ निश्वास उसे लेते विलोक कर,
रखना पड़ता मौन-भाव ही सहज शोक कर !
कुछ भेद पूछने से उसे होता मन में खेद है,
अति असन्तोष है पर उसे यांचा से निर्वेद है।

ऐसी ही दृढ़ जटिल चरित्रा है वह नारी,
दुखिया है, पर कौन कहे उसको बेचारी।
जब तब उसको देख भीति होती है मन में,
तो भी उस पर परम प्रीति होती है मन में।
अपना आदर मानो दया – करके वह स्वीकारती,
पर दया करो तो वह स्वयं, घृणा-भाव है धारती !

वृक्ष-भिन्न-सी लता तदपि उच्छिन्न नहीं वह,
मेरा सद्व्यवहार देखकर खिन्न नहीं वह।
जान सकी मैं यही बात उस गुणवाली की,
आली है वह विश्व-विदित उस पांचाली की।
जो पंच पाण्डवों की प्रिया प्रिय-समेत प्रच्छन्न है,
बस इसीलिए वह सुन्दरी सम्प्रति व्यग्र विपन्न है।

किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो,
बुनकर अपन शौर्य्य यशःट यों न उघेड़ो।
गुप्त पाप ही नहीं, प्रकट भय भी है इसमें,
आत्म-पराजय मात्र नहीं, क्षय भी है इसमें।
सब पाण्डव भी होंगे प्रकट, नहीं छिपेगा पाप भी
सहना होगा इस राज्य को अबला का अभिशाप भी।

सुन्दरियों का क्या अभाव है, तुम्हें, बताओ,
जो तुम होकर शूर उसे इस भाँति सताओ।
जीत सके मन भी न वीर तुम कैसे फिर हो ?
कहलाते हो धीर और इतने अस्थिर हो !
हम अबालाए तो एक की, होकर रहती हैं सदा
तुम पुरुषों को सौ भी नहीं, होती हैं तृप्ति-प्रदा !”

“बहन किसे यह सीख सिखाती हो तुम, मुझको ?
किसे धर्म का मार्ग दिखाती हो तुम, मुझको !
व्यर्थ ! सर्वथा व्यर्थ ! सुनूँ देखूँ क्या अबमैं !
सारी सुध-बुध ऊधर गँवा बैठा हूँ जब मैं।
उस मृगनयनी की प्राप्ति ही, है सुकीर्त्ति मेरी, सुनो,
चाहो मेरा कल्याण तो, कोई जाल तुम्हीं बुनो।

सुन्दरियों का क्या अभव है मुझे, नहीं है,
प्राप्त वस्तु से किन्तु हुआ सन्तोष कहीं है ?
आग्रह तो अप्राप्त वस्तु का ही होता है,
हृदय उसी के लिए हाय ! हठ कर रोता है।
उसके पाने में ही प्रकट, होती है वर वीरता,
सोचो, समझो, इस तत्व की तनिक तुम्हीं गंभीरता।”

वह कामी निर्लज्ज नीच कीचक यह कह कर,
चला गया, मानों अधैर्य धारा में बह कर।
उसकी भगिनी खड़ी रही पाषाण-मूर्ति-सी,
भ्राता के भय और लाज की स्वयं पूर्त्ति-सी !
देखा की डगमग जाल वह उसकी अपलक दृष्टि से, -
जो भीग रही थी आप निज, घोर घृणा की वृष्टि से।
“राम-राम ! यह वही बली मेरा भ्राता है,
कहलाता जो एक राज्य भर का त्राता है !
जो अबला से आज अचानक हार रहा है,
अपना गौरव, धर्म, कर्म, सब वार रहा है।
क्या पुरुषों के चारित्र्य का, यही हाल है लोक में ?
होता है पौरुष पुष्ट क्या, पशुता के ही ओक में ?

सुन्दरता यदि बिधे, वासना उपजाती है,
तो कुल-ललना हाय ! उसे फिर क्यों पाती है ?
काम-रीति को प्रीति नाम नर देते हं बस,
कीट तृप्ति के लिए लूटते हैं प्रसून-रस।
यदि पुरुष जनों का प्रेम है पावन नेम निबाहता
तो कीचक मुझ-सा क्यों नहीं सैरन्ध्री को चाहता ?

सैरन्ध्री यह बात श्रवण कर क्या न कहेगी ?
वह मनस्विनी कभी मौन अपमान सहेगी ?
घोर घृणा की दृष्टि मात्र वह जो डालेगी,
मुझको विष में बुझी भाल-सी वह सालेगी !
ऐसे भाई की बहन मैं, हूँगी कैसे सामने,
होते हैं शासन-नीति के दोषी जैसे सामने।

किन्तु इधर भी नहीं दीखती है गति मुझको,
उभय ओर कर्त्तव्य कठिन है सम्प्रति मुझको।
विफलकाम यदि हुआ हठी कीचक कामातुर,
तो क्या जाने कौन मार्ग ले वह मदान्ध-उर।
राजा भी डरते हैं उसे, वह मन में किससे डरे ?
क्या कह सकता है कौन, वह – जो कुछ भी चाहे करे।

इससे यह उत्पात शान्त हो तभी कुशल है,
विद्रोही विख्यात बली कीचक का बल है।
नहीं मानता कभी क्रूर वह कोई बाधा,
राज-सैन्य को युक्ति-युक्त है उसने साधा।
सैरन्ध्री सम्मत हो कहीं, तो फिर भी सुविधा रहे।
पर मैं रानी दूती बनूँ, हृदय इसे कैसे सहे ?

मन ही मन यहसोच सोच कर सभय सयानी,
सैरन्ध्री से प्रेम सहित बोली तब रानी –
इतने दिन हो गए यहाँ तुझको सखि, रहते,
देखी गई न किन्तु स्वयं तू कुछ कहते।
क्या तेरी इच्छा-पूर्ति की पा न सकूँगी प्रीति मैं ?
विस्मित होती हूँ देख कर, तेरी निस्पृह नीति मैं !”

सैरन्ध्री उस समय चित्र-रचना करती थी,
हाथ तुला था और तूलिका रंग भरती थी।
देख पार्श्व से मोड़ महा ग्रीवा, कुछ तन कर,
हँस बोली वह स्वयं एक सुन्दर छवि बनकर
“मैं क्या मांगूँ जब आपने, यों ही सब कुछ है दिया।
आज्ञानुसार वह दृश्य यह, लीजे, मैंने लिख दिया।”

“क्रिया-सहित तू वचन-विदग्धा भी है आली,
है तेरी प्रत्येक बात ही नई, निराली।”
यह कह रानी देख द्रौपदी को मुसकाई,
करने लगी सुचित्र देख कर पुनः बड़ाई।
“अंकित की है घटना विकट, किस पटुता के साथ में,
सच बतला जादू कौन-सा है तेरे इस हाथ में ?”

कुछ पुलकित कुछ चकित और कुछ दर्शक शंकित,
नृप विराट युत एक ओर थे छबि में अंकित।
एक ओर थी स्वयं सुदेष्णा चित्रित अद्भुत –
बैठी हुई विशाल झरोखे में परिकर युत,
मैदान बीच में था जहाँ, दो गज मत्त असीम थे,
उन दृढ़दन्तों के बीच में, बल्लव रूपी भीम थे।

यही भीम-गज-युद्ध चित्र का मुख्य विषय था,
जब निश्चय के साथ साथ ही सबको भय था।
पार्श्वों से भुजदण्ड वीर के चिपट रह थे,
उनमें युग कर-शुण्ड नाक-से लिपट रहे थे।
गज अपनी अपनी ओर थे उन्हें खींचते कक्ष से,
पर खिंचे जा रहे थे स्वयं, भीम-संग प्रत्यक्ष।

निकल रहा था वक्ष वीर का आगे तन कर,
पर्वत भी पिस जाए, अड़े जो बाधक बन कर,
दक्षिण-पद बढ़ चुका वाम अब बढ़ने को था,
गौरव-गिरि के उच्च श्रृंग पर चढ़ने को था।
मद था नेत्रों में दर्प का, मुख पर थी अरुणच्छटा,
निकलाहो रवि ज्यों फोड़ कर, युगल गजों की घन घटा।

रानी बोली – “धन्य तूलिका है सखि तेही,
कला-कुशलता हुई आप ही आकर चेरी।
किन्तु आपको लिखा नहीं तूने क्यों इसमें ?
वल्लव को प्रत्य़क्ष जयश्री रहती जिसमें ?
उस पर तेरा जो भाव है, मैं उसको हूँ जानती,
हँसती हैलज्जा युक्त तू, तो भी भौंहें तानती।

दोष जताने से न प्यार का रंग छिपेगा,
सौ ढोंगों से भी न कभी वह ढंग से छिपेगा।
विजयी वल्लव लड़ा वन्य जीवों से जब जब –
सहमी सबसे अधिक अन्त तक तू ही तब तब।
फल देख युद्ध का अन्त में बची साँस-सी ले अहा !
तेरे मुख का वह भाव है मेरे मन में बस रहा।”

“कह तो लिक दूँ उसे अभी इस चित्र फलक पर !
बात नहीं जो मुकर सके तू किसी झलक पर।
कह तो आँखें लिखूँ नहीं जो यह सह सकती,
न तो देख सकती न बिना देखे रह सकती।
या लिखूँ कनौखी दृष्टि वह, विजयी वल्लव पर पड़ी ?
नीचे मुख की मुसकान में, मुग्ध हृदय की हड़बड़ी !

वल्लव फिर भी सूपकार, साधारण जन है, -
और उच्च पद-योग्य धन्य यह यौवन-धन है।”
कृष्णा बोली – “देवि, आप कुछ कहें भले ही,
मुझको संशय योग्य समझती रहें भले ही।
पर करती नहीं कदापि हूँ कोई अनुचित कर्म मैं,
दासी होकर भी आपकी, रखती हूँ निज धर्म मैं।

लड़ता है नर एक क्रूर पशुओं से डट कर,
कौतुक हम सब लोग देखते हैं हट-हट कर।
उस पर तदपि सहानुभूति भी उदित न हो क्या ?
और उसे फिर जयी देख मन मुदित न हो क्या ?
यदि इतने से ही मैं हुई, संशय योग्य कोघोष से,
तो क्षमा कीजिए आप भी – बचेंगी न इस दोष से।

पद से ही मैं किन्तु मानती नहीं महत्ता,
चाहे जितनी क्यों न रहे फिर उसमें सत्ता।
स्थिति से नहीं, महत्व गुणों से ही बढ़ता है,
यों मयूर से गीध अधिक ऊँचे चढ़ता है।


क्रमशः......

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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजनसम्मान

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