सैरेन्ध्री (खंडकाव्य)

Tuesday, September 05, 2006

सैरेन्ध्री......

बल्लव सम वीर बलिष्ठ का, पक्षपात किसको न हो,
क्या प्रीति नाम में ही प्रकट काम वासना है अहो !”

रानी ने हँस कहा – “दोष क्या तेरा इसमें ?
रहती नहीं अपूर्व गुणों की श्रद्धा किसमें ?
स्वाभाविक है काम-वासना भी हम सबकी,
और नहीं सो सृष्टि नष्ट हो जाती कब की ?
मेरा आशय था बस यही – तू उस जन के योग्य है,
अच्छी से अच्छी वस्तु इस – भव की जिसको भोग्य है।

रहने दे इस समय किन्तु यह चर्चा, जा तू,
कीचक को यह चारु चित्र जाकर दे आ तू।
भाई के ही लिए इसे मैंने बनवाया,
वल्लव का यह युद्ध बहुत था उसको भाया।
मेरा भाई भी है बड़ा, वीर और विश्रुत बली,
ऐसे कामों में सदा, खिलती है उसकी कली।”

त्योरी तत्क्षण बदल गई कृष्णा की सहसा,
रानी कायह कथन हुआ उसको दुस्सह-सा।
पालक का जी पली सारिका यथा जला दे,
हाथ फेरते समय अचानक चोंच जला दे !
वह बोली – “क्या यह भूमिका, इसीलिए थी आपकी ?
यह बात ‘महत्पद’ के लिए है कितने परिताप की ?”

कहा सुदेष्णा ने कि – “अरे तू क्या कहती है ?
अपने को भी आप सदा भूली रहती है।
करती हूँ सम्मान सदा स्वजनी-सम तेरा,
तू उलटा अपमान आज करती है मेरा !
क्या मैंने आश्रय था दिया, इसीलिए तुझको, बता –
तू कौन और मैं कौन हूँ, इसका भी कुछ है पता ?”

रानी के आत्माभिमान ने धक्का खाया,
सैरन्ध्री को भी न कार्य्य अपना यह भाया।
“क्षमा कीजिए देवि, आप महिषी मैं दासी,
कीचक के प्रति न था हृदय मेरा विश्वासी।
इसलिए न आपे में रही, सुनकर उसकी बात मैं,
सहती हूँ लज्जा-युक्त हा ! उसके वचनागात मैं।

होकर उच्च पदस्थ नीच-पथ-गामी है वह,
पाप-दृष्टि से मुझे देखता, -कामी है वह।
नर होकर भी हाय ! सताता है नारी को,
अनाचार क्या कभी है उचित बलधारी को ?
यों तो पशु महिष वराह भी रखते साहस सत्व हैं,
होते परन्तु कुछ और ही, मनुष्यत्व के तत्व हैं।

मुझे न उसके पास भेजिए, यही विनय है,
क्योंकि धर्म्म के लिए वहाँ जाने में भय है।
रखिए अबला रत्न, आप अबला की लज्जा,
सुन मेरा अभियोग कीजिए शासन-सज्जा।
हा ! मुझे प्रलोभन ही नहीं, कीचक ने भय भी दिया,
मर्यादा तोड़ी धर्म की, और असंयम भी किया।”

रानी कहने लगी – “शान्त हो, सुन सैरन्ध्री,
अपनी धुन में भूल न जा, कुछ गुन सैरन्ध्री !
भाई पर तो दोष लगाती है तू ऐसे,
पर मेरा आदेश भंग करती है कैसे ?
क्या जाने से ही तू वहाँ फिर आने पाती नहीं ?
होती हैं बातें प्रेम की, सफल भला बल से कहीं !

तू जिसकी यों बार बार कर रही बुराई,
भूल न जा, वह शक्ति-शील है मेरा भाई !
करता है वह प्यार तुझे तो यह तो तेरा –
गौरव ही है, यही अटल निश्चय है मेरा।
तू है ऐसी गुण-शालिनी, जोदेखे मोहे वही,
फिर इसमें उसका दोष क्या, चिन्तनीय है बस यही।

तू सनाथिनी हो कि न हो उस नर पुंगव से,
उदासीन ही रहे क्यों न वैभव से, भव से।
पर तू चाहे लाख गालियाँ दी जो मुझको,
मैं भाभी ही कहा करूँगी अब से तुझको !
जा, दे आ अब यह चित्र तू जाकर अपनी चाल से।”
हो गई मूढ़-सी द्रौपदी, इस विचित्र वाग्जाल से।

बोली फिर – “आदेश आपका शिरोधार्य है,
होने को अनिवार्य किन्तु कुछ अशुभ कार्य है !
पापी जन का पाप उसी का भक्षक होगा।”
चलते चलते उसने कहा, नभ की ओर निहार के –
“द्रष्टा हो दिनकर देव तुम, मेरे शुद्धाचार के।”

ठोका उसने मध्य मार्ग में आकर माथा –
“रानी करने चली आज है मुझे सनाथा !
विश्वनाथ हैं तो अनाथ हम किसको मानें ?
मैं अनाथ हूँ या सनाथ, कोई क्या जानें ?
मुझको सनाथ करके स्वयं, पाँच वार संसार में,
हे विधे, बहाता हैबता, अब तू क्यों मँझधार में ?

हठ कर मेरी ननद चाहती है वह होना,
आवे इस पर हँसी मुझे आवे रोना ?
पहले मेरी ननद दुःशाला ही तो हो ले ?
बन जाते हैं कुटिल वचन भी कैसे भोले !
मैं कौन और वह कौन है, मैं यह भी हूँ जानती।”
कर आप अधर दंशन चली कृष्णा भौंहे तानती।

“आ, विपत्ति, आ, तुझे नहीं डरती हूँ अब मैं,
देखूँ बढ़कर आप कि क्या करती हूँ अब मैं।
भय क्या है, भगवान भाव ही में है मेरा,
निश्चय, निश्चय जिये हृदय, दृढ़ निश्चय तेरा।
मैं अबला हूँ तो क्या हुआ ? अबलों का बल राम है,
कर्मानुसार भी अन्त में शुभ सबका परिणाम है।”

सैरन्ध्री को देख सहज अपने घर आया,
कीचक ने आकाश-शशी भू पर-सा पाया।
स्वागत कर वह उसे बिठाने लगा प्रणय से,
किन्तु खड़ी ही रही काँप कर कृष्णा भय से।
चुपचाप चित्र देकर उसे ज्यों ही वह चलने लगी,
त्यों ही कीचक की कामना उसको यों छलने लगी –

“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था,
पर तू इतनी कुशल ! बहन ने ठीक कहा था।
इस रचना पर भला तुझे क्या पुरस्कार दूँ ?
तुझ पर निज सर्वस्व बोल मैं अभी वार दूँ !”
बोली कृष्णा मुख नत किए – “क्षमा कीजिए बस मुझे,
कुछ, पुरस्कार के काम में, नहीं दिखता रस मुझे।”

“रचना के ही लिए हुआ करती है रचना।”
कृष्णा चुप हो गई कठिन था तब भी बचना।
बोला खल – “पर दिखा चुका जो ललित कला यह,
क्या चूमा भी जाय कुशलता-कर न भला वह ?
सैरन्ध्री कहूं विशेष क्या तू, ही मेरी सम्पदा,
मेरे वश में है, राज्य यह, मैं तेरे वश में सदा।”

हे णनुपम आनन्द-मूर्ति, कृशतनु, सुकुमारी,
बलिहारी यह रुचिर रूपर की राशि तुम्हारी !
क्या तुम हो इस योग्य, रहो जो बनकर चेरी,
सुध बुध जाती रही देख कर तुझको मेरी।
इन दृग्बाणों से बिद्ध यह मन मेरा जब से हुआ,
है खान-पान-शयनादि सब विष-समान तब से हुआ।

अब हे रमणीरत्न, दया कर इधर निहारो,
मेरी ऐसी प्रीति नहीं कि प्रतीति न धारो।
मैं तो हूँ अनुरक्त, तनिक तुम भी अनुरागो।
रानी होकर रहो, वेश दासी का त्यागो।
होती है यद्यपि खान में किन्तु नहीं रहती पड़ी,
मणि, राज-मुकुट में ही प्रिये, जाती है आखिर जड़ी।”

“अहो वीर बलवान, विषम विष की धारा-से,
बोलो ऐसी बात न तुम मुझ पर-दारा से।
तुम जैसे ही बली कहीं अनरीति से करेंगे,
तो क्या दुर्बल जीव धर्म का ध्यान धरेंगे ?
नर होकर इन्द्रिय-वश अहो ! करते कितने पाप हैं,
निज अहित-हेतु अविवेकि जन होते अपने आप हैं।

राजोचित सुख-भोग तुम्हीं को हों सुख-दाता,
कर्मों के अनुसार जीव जग में फल पाता।
रानी ही यदि किया चाहता मुझको धाता,
तो दासी किसलिए प्रथम ही मुझे बनाता।
निज धर्म-सहित रहना भला, सेवक बन कर भी सदा,
यदि मिले पाप से राज्य भी, त्याज्य समझिए सर्वदा।

इस कारण हे वीर, न तुम यों मुझे निहारो,
फणि-मणि पर निज कर न पसारो, मन को मारो।
प्रेम करूँ मैं बन्धु, मुझे तुम बहन विचारो, -
पाप-गर्त्त से बचो, पुण्य-पथ पर पद धारो।
अपने इस अनुचित कर्म के लिए करो अनुताप तुम,
मत लो मस्तक पर वज्र-सम सती-धर्म का शाप तुम।”

कृष्णा ने इस भाँति उसे यद्यपि समझाया,
किन्तु एक भी वचन न उसके मन को भाया।
मद-मत्तों को यथा-योग्य उपदेश सुनाना,
है ऊपर में यथा वृथा पानी बरसाना।
कर सकते हैं जो जन नहीं मनोदमन अपना कभी,
उनके समक्ष शिक्षा कथन निष्फल होता है सभी।

“रहने दो यह ज्ञान, ध्यान, ग्रन्थों की बातें !
फिर भिर आती नहीं सुयौवन की दिन-रातें।
करिए सुख से वही काम, जो हो मनमाना,
क्या होगा मरणोपरान्त, किसने यह जाना ?
जो भावों की आशा किए वर्तमान सुख छोड़ते,
वे मानो अपने आप ही निज-हित से मुँह मोड़ते।”

कह कर ऐसे वचन वेग से बिना विचारे,
आतुर हो अत्यन्त, देह की दशा बिसारे।
सहसा उसने पकड़ लिया कर पांचाली का,
मानो किसल-गुच्छ नाग ने नत डाली का।
कीचक की ऐसी नीचता देख सती क्षोभित हुई,
कर चक्षु चपल-गति से चकित शम्पा-सी शोभित हुई।

जो सकम्प तनु-यष्टि ढूलती रज्जु सदृश थी,
शिथिल हुई निर्जीव दीख पड़ती अति कृश थी।
आहा ! अब हो उठी अचानक वह हुंकारित,
ताब-पेंच खा बनी कालफणिनी फुंकारित।
भ्रम न था रज्जु में सर्प की उपमा पूरी घट गई,
कीचक के नीचे की धरा मानों सहसा हट गई।

“अरे नराधम, तुझे नहीं लज्जा आती है ?
निश्चय तेरी मृत्यु मुण्ड पर मंडराती है।
मैं अबला हूँ किन्तु न अत्याचार सहूँगी,
तुझे दानव के लिए चण्डिका भी बनी रहूँगी।
मत समझ मुझे तू शशि-सुधा खल, निज कल्मष राहू की,
मैं सिद्ध करूँगी पाशता अपने वामा-बाहु की।

होता हैयदि पुलक हमारी गल-बाहों में, -
तो कालानल नित्य निकलता है आहों में !”
यों कह कर झट हाथ छुड़ाने को उस खल से,
तत्क्षण उसने दिया एक झटका अति बल से।
तब मानों सहसा मुँह के बल वहाँ मदोन्मत्त वह गिर पड़ा,
मानों झंझा के वेग से पतित हुआ पादप बड़ा।

तब विराट की न्याय-सभा की नींव हिलाने,
उस कामी को कुटिल-कर्म का दण्ड दिलाने,
कच-कुच और नितम्ब-भार से खेदित होती,
गई किसी विध शीघ्र द्रौपदी रोती रोती।
पीछे से उसको मारने उठकर कीचक भी चला,
उस अबला द्वारा भूमि पर गिरना उसको खला।

कृष्णा पर कर कोप शीघ्र झपटा वह ऐसे –
थकी मृगी की ओर तेंदुआ लपके जैसे।
भरी सभा में लात उसे उस खल ने मारी,
छिन्न लता-सी गिरी भूमि पर वह पेजारी।
पर सँभला कीचक भी नहीं निज बल-वेग विशेष से,


क्रमश.....

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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजनसम्मान
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